नई दिल्ली: हर साल देश में 14 सितंबर का दिन हिंदी दिवस (Hindi Diwas) के तौर पर मनाया जाता हैं। अलग-अलग धर्म, जाति, संस्कृति, भाषा, वेश-भूषाओं वाले इस देश को एक रखने में हिंदी की बेहद अहम भूमिका हैं। इतनी अधिक अहमियत होने के बावजूद भी हिंदी आज भी हमारी राष्ट्रभाषा नहीं हैं बल्कि राजभाषा हैं। देश में सबसे अधिक बोली जाने के बावजूद भी हिंदी राष्ट्रभाषा नहीं बन सकी हैं। दरअसल संविधान का मसौदा तैयार करते वक्त हिंदी को राष्ट्र भाषा बनाने की मांग जोर-शोर से उठी थी, लंबी बहसें हुईं। लंबे विचार और बहस के बाद अंग्रेजी के साथ हिंदी को देश की राजभाषा का दर्जा मिलना तय हुआ यानी राज्य इसे अपने राजकाज के काम में लाते हैं।
10 दिसंबर, 1946 में संविधान सभा की दूसरी ही बैठक में हिंदी का मुद्दा तब गरमा गया जब सदस्य आरवी धुलेकर ने सभापति से कहा कि कहा कि यह कार्यवाही हिन्दुस्तानी में होनी चाहिए और जिसे यह भाषा नहीं आती हैं, उन्हें देश में रहने का हक नहीं हैं। दक्षिण भारत के लोग हिंदी भाषा को राष्ट्रभाषा बनाने के खिलाफ थे। 14 सितंबर, 1949 को निर्णय लिया गया कि हिंदी (देवनागरी लिपि) ही भारत की राजभाषा होगी।
बापू ने की थी हिन्दुस्तानी को राष्ट्रभाषा बनाने की बात
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने हिन्दुस्तानी को जनमानस की भाषा कहा था। जवाहर लाल नेहरू समेत अन्य नेता भी चाहते थे कि हिन्दुस्तानी को ही भारत की राष्ट्रभाषा बनाया जाए। साल 1918 में आयोजित हिंदी साहित्य सम्मेलन में गांधी जी ने हिंदी को राष्ट्र भाषा बनाने की बात कही थी। वे वर्षों तक हिन्दुस्तानी और देवनागरी लिपि के प्रचार-प्रसार में लगे हुए थे। उन्होंने हरिजन अखबार में लिखा था कि हिन्दुस्तानी भाषा को कठिन संस्कृत वाली हिंदी और फारसी से भरी उर्दू भाषा से अलग होना चाहिए जो कि इन दोनों भाषाओं का मिश्रण हो।
पूर्व स्वतंत्रता सेनानी और संविधान सभा के सदस्य सेठ गोविंद दास ने कहा था कि अब हिंदी बनाम हिन्दुस्तानी का विवाद समाप्त हो चुका हैं और हिंदी को ही अब राष्ट्रीय भाषा बनाना होगा। वहीं, दक्षिण के टीटी कृष्णामचारी ने कहा कि दक्षिण में बहुत से तत्व वैसे ही भाषा के आधार पर अलग राष्ट्र का मुद्दा उठा रहे हैं, अगर हिंदी को राष्ट्रीय भाषा बनाया गया तो अलगाववाद को बल मिलेगा। बंगाल के लक्ष्मीकांत मिश्रा ने कहा था कि यह मांग बेतुकी हैं, अगर सबको हिंदी ही बोलनी हैं तो आजादी के क्या मायने रह जाएंगे।