जयंती स्पेशल: महान क्रांतिकारी शहीद चंद्रशेखर Azad ने किसकी हत्या का लिया था बदला !

The great revolutionary martyr Chandrashekhar Azad took revenge for whose murder!

देश-दुनिया के इतिहास में 23 जुलाई का अहम स्थान है। भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के क्रांतिवीरों की दृष्टि से यह तारीख इतिहास के स्वर्णिम पन्नों में दर्ज है। दरअसल, इस दिन हम भारत की स्वाधीनता के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर देने वाले, भारत माता के वीर सपूत, मध्यप्रदेश की माटी के गौरव, महान क्रांतिकारी अमर शहीद चंद्रशेखर आजाद की जयंती मनाते हैं और उनको श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। वे ऐसे शख्सियत बने जिन्होंने गुलामी के दौर में ‘आजादी’ का मंत्र फूंकने का काम किया।

इस संबंध में पीएम मोदी ने ट्वीट कर कहा, ‘मैं मां भारती के दो महान सपूतों लोकमान्य तिलक और चंद्रशेखर आजाद को उनकी जयंती पर नमन करता हूं। ये दो दिग्गज साहस और देशभक्ति के प्रतीक हैं।’ प्रधानमंत्री ने अपने ‘मन की बात’ एपिसोड की क्लिप भी साझा की जिसमें उन्होंने दो स्वतंत्रता सेनानियों को श्रद्धांजलि दी।

चंद्रशेखर आजाद का जन्म 23 जुलाई, 1906 को मध्य प्रदेश के वर्तमान अलीराजपुर जिले के भावरा गांव में हुआ था। चंद्रशेखर 1921 में स्वतंत्रता संग्राम में शामिल हुए, जब वे स्कूल के छात्र थे। दिसंबर 1921 में महात्मा गांधी ने असहयोग आंदोलन शुरू किया। चंद्रशेखर ने आंदोलन में हिस्सा लिया और उन्हें अंग्रेजों ने गिरफ्तार कर लिया।

उन्होंने अपने नाम के साथ ‘आजाद’ शब्द लगाया था। किवदंती है कि जब उन्होंने यह नाम अपनाया तो कसम खाई थी कि पुलिस उन्हें कभी भी जीवित नहीं पकड़ सकेगी। वे राम प्रसाद बिस्मिल द्वारा गठित क्रांतिकारी संगठन ‘हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन’ में शामिल हो गए। 1925 में काकोरी रेल डकैती और साल 1928 में सहायक पुलिस अधीक्षक डॉन सॉन्डर्स की हत्या के कारण वे सबसे अधिक प्रसिद्ध हुए थे।

23 फरवरी, 1931 को पुलिस ने आजाद को घेर लिया। उनकी दाहिनी जांग पर गोली लगी जिससे उनका बचना मुश्किल हो गया। उनकी पिस्तौल में एक गोली बची थी और वे पुलिस से घिरे हुए थे। इसलिए उनके पास बचने का कोई उपाय नहीं था। उन्होंने कभी जीवित नहीं पकड़े जाने की प्रतिज्ञा को ध्यान में रखते हुए खुद को गोली मार ली।

क्या था चंद्रशेखर आजाद का असली नाम ?

काकोरी ट्रेन डकैती और सॉन्डर्स की हत्या में शामिल निर्भय क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद का वास्तविक नाम ”चंद्रशेखर सीताराम तिवारी” था। चंद्रशेखर आजाद का प्रारंभिक जीवन आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र भावरा गांव में व्यतीत हुआ था।

चंद्रशेखर सीताराम तिवारी से कैसे बने चंद्रशेखर आजाद ?

भील बालकों के साथ रहते हुए चंद्रशेखर आजाद ने बचपन में ही धनुष-बाण चलाना सीख लिया था। चंद्रशेखर आजाद की मां जगरानी देवी उन्हें संस्कृत का विद्वान बनाना चाहती थीं। इसीलिए उन्हें संस्कृत सीखने लिए काशी विद्यापीठ भेजा गया। दिसंबर 1921 में जब गांधी जी द्वारा असहयोग आंदोलन की शुरुआत की गई उस समय मात्र चौदह वर्ष की उम्र में चंद्रशेखर आजाद ने इस आंदोलन में भाग लिया। इस दौरान उन्हें गिरफ्तार कर मजिस्ट्रेट के समक्ष उपस्थित किया गया। जब चंद्रशेखर से उनका नाम पूछा गया तो उन्होंने अपना नाम आजाद और पिता का नाम स्वतंत्रता बताया। यहीं से चंद्रशेखर सीताराम तिवारी का नाम चंद्रशेखर आजाद पड़ गया। चंद्रशेखर को पंद्रह दिनों के कड़े कारावास की सजा सुनाई गई।

छोटी सी उम्र में देश की नजरों में आए

बेंत की सजा देने के लिए उनके कपड़े उतारकर निर्वसन किया गया। खंबे से बांधा गया और बेंत बरसाए गए। हर बेंत उनके शरीर की खाल उधेड़ता रहा और वे भारत माता की जय बोलते रहे। बारहवें बेंत पर अचेत हो गए फिर भी बेंत मारने वाला न रुका। उसने अचेत देह पर भी बेंत बरसाए। लहू-लुहान चन्द्रशेखर को उठाकर घर लाया गया। उन्हें स्वस्थ होने में और घाव भरने में एक माह से अधिक का समय लगा। इस घटना से चन्द्रशेखर आजाद की दृढ़ता और बढ़ी। इसका जिक्र पर पूरे भारत में हुआ। सभाओं में उदाहरण दिया जाने लगा। महात्मा गांधी ने भी इस घटना की आलोचना की और अपने विभिन्न लेखों में इस घटना का उल्लेख किया है।

1922 में जब गांधी जी ने असहयोग आंदोलन को स्थगित कर दिया था तो इस घटना ने चंद्रशेखर आजाद को आहत किया। उन्होंने ठान लिया कि किसी भी तरह देश को स्वतंत्रता दिलवानी ही है। एक युवा क्रांतिकारी प्रनवेश चटर्जी ने उन्हें हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन जैसे क्रांतिकारी दल के संस्थापक राम प्रसाद बिस्मिल से मिलवाया। आजाद इस दल और बिस्मिल के समान स्वतंत्रता और बिना किसी भेदभाव के सभी को अधिकार जैसे विचारों से बहुत प्रभावित हुए।

लाला लाजपत राय की हत्या का कैसे लिया बदला ?

चंद्रशेखर आजाद के समर्पण और निष्ठा की पहचान करने के बाद बिस्मिल ने उन्हें अपनी संस्था का सक्रिय सदस्य बना दिया। अंग्रेजी सरकार के धन की चोरी और डकैती जैसे कार्यों को अंजाम देकर चंद्रशेखर आजाद अपने साथियों के साथ संस्था के लिए धन एकत्र करने लगे। लाला लाजपत राय की हत्या का बदला लेने के लिए चंद्रशेखर आजाद ने अपने साथियों के साथ मिलकर सांडर्स की हत्या कर दी। आजाद का यह मानना था कि संघर्ष की राह में हिंसा होना कोई बड़ी बात नहीं है इसके विपरीत हिंसा बेहद जरूरी है। जलियांवाला बाग हत्याकांड के बाद उन्होंने हिंसा को ही अपना मार्ग बना लिया।

बनारस में बने पूर्ण क्रांतिकारी

The great revolutionary martyr Chandrashekhar Azad took revenge for whose murder!

अपनी स्कूली शिक्षा पूरी कर चन्द्रशेखर पढ़ने के लिए बनारस आए। उन दिनों बनारस क्रांतिकारियों का एक प्रमुख केन्द्र हुआ करता था। यहां उनका परिचय सुप्रसिद्ध क्रांतिकारी मन्मथ नाथ गुप्त और प्रणवेश चटर्जी से हुआ और वे सीधे क्रांतिकारी गतिविधियों से जुड़ गए। आरंभ में उन्हें क्रांतिकारियों के लिए धन एकत्र करने का काम मिला। यौवन की देहरी पर कदम रख रहे चन्द्रशेखर आजाद ने युवकों की एक टोली बनाई और उन जमींदारों या व्यापारियों को निशाना बनाया जो अंग्रेज परस्त थे। इसके साथ ही यदि सामान्य जनों पर अंग्रेज सिपाही जुल्म करते तो बचाव के लिए आगे आते। उन्होंने बनारस में कर्मकांड और संस्कृत की शिक्षा ली थी। उन्हें संस्कृत संभाषण का अभ्यास भी खूब था।

चकमा देने के लिए रखा दूसरा नाम

अपनी क्रांतिकारी सक्रियता बनाए रखने के लिए उन्होंने अपना छद्म नाम ”हरिशंकर ब्रह्मचारी” रख लिया और झांसी के पास ओरछा में अपना आश्रम भी बना लिया। बनारस से लखनऊ, कानपुर और झांसी के बीच के सारे इलाके में उनकी धाक जम गई थी। वे अपने लक्षित कार्य को पूरा करते और आश्रम लौट आते। क्रांतिकारियों में उनका नाम चन्द्रशेखर आजाद था तो समाज में हरिशंकर ब्रह्मचारी। उनकी रणनीति के अंतर्गत ही सुप्रसिद्ध क्रांतिकारी भगत सिंह अपना अज्ञातवास बिताने कानपुर आए थे।

अंग्रेजों को किया खूब परेशान

1922 के असहयोग आन्दोलन में जहां उन्होंने बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया वहीं 1927 के काकोरी कांड, 1928 के सॉन्डर्स वध, 1929 के दिल्ली विधान सभा बम कांड, और 1929 में दिल्ली वायसराय बम कांड में भी उनकी भूमिका महत्वपूर्ण रही है। यह चन्द्रशेखर आजाद का ही प्रयास था कि उन दिनों भारत में जितने भी क्रांतिकारी संगठन सक्रिय थे सबका एकीकरण करके 1928 में ”हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी” का गठन हुआ। इन तमाम गतिविधियों की सूचना तब अंग्रेज सरकार को लग रही थी। उन्हे पकड़ने के लिए लाहौर से झांसी तक लगभग 700 खबरी लगाए गए। इसकी जानकारी चन्द्रशेखर आजाद को भी लग गई थी अत:एव कुछ दिन अप्रत्यक्ष रूप से काम करने की रणनीति बनी। वे हरिशंकर ब्रह्मचारी के रूप में ओरछा आ गए। उस समय के कुछ क्रांतिकारी भी साधु वेष में उनके आश्रम में रहने लगे थे, लेकिन क्रांतिकारी आंदोलन के लिए धन संग्रह का दायित्व अभी भी चन्द्रशेखर आजाद के पास ही था। वे हरिशंकर ब्रह्मचारी वेष में ही यात्राएं करते और धन संग्रह करते। धन संग्रह में उन्हे पंडित मोतीलाल नेहरू का भी सहयोग मिला।

इलाहाबाद से था रिश्ता

वे जब भी आर्थिक सहयोग के लिए प्रयाग जाते पं. मोतीलाल नेहरू से मिलने की योजना बनती। वे हमेशा इलाहाबाद के बिलफ्रेड पार्क में ही ठहरते थे। वे संत के वेश में होते थे और यही पार्क उनके बलिदान का स्थान बना। वह 27 फरवरी 1931 का दिन था। पूरा खुफिया तंत्र उनके पीछे लगा था। वे 18 फरवरी को इस पार्क में पहुंचे थे। यद्यपि उनके पार्क में पहुंचने की तिथि पर मतभेद हैं, लेकिन वे 19 फरवरी को पंडित मोतीलाल नेहरू की तेरहवीं में शामिल हुए थे। तेरहवीं के बाद उनकी कमला नेहरू से भेंट भी हुईं। कमला जी यह जानती थीं कि पं मोतीलाल नेहरू क्रांतिकारियों को सहयोग करते थे।

अंग्रेजी हुकूमत को भारत से खदेड़ने का नहीं छोड़ा कोई कोर-कसर

चंद्रशेखर आजाद ने एक निर्धारित समय के लिए झांसी को भी अपना गढ़ बनाया था। ओरछा के जंगलों में अपने साथियों के साथ निशानेबाजी सीखी। झांसी में ही आजाद ने गाड़ी चलानी सीखी। 1925 में हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन की स्थापना की गई। इसी साल काकोरी कांड हुआ जिसके आरोप में अशफाक उल्ला खां, बिस्मिल समेत अन्य मुख्य क्रांतिकारियों को मौत की सजा सुनाई गई। इसके बाद चंद्रशेखर ने इस संस्था का पुनर्गठन किया। भगवतीचरण वोहरा के संपर्क में आने के बाद चंद्रशेखर आजाद भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु के भी निकट आ गए थे। इसके बाद भगत सिंह के साथ मिलकर चंद्रशेखर आजाद ने अंग्रेजी हुकूमत को डराने और भारत से खदेड़ने का हर संभव प्रयास किया।

वर्ष 1931 में फरवरी के अंतिम सप्ताह में जब आजाद गणेश शंकर विद्यार्थी से मिलने सीतापुर जेल गए तो विद्यार्थी ने उन्हें इलाहाबाद जाकर जवाहर लाल नेहरू से मिलने को कहा। चंद्रशेखर आजाद जब नेहरू से मिलने आनंद भवन गए तो उन्होंने बात सुनने से भी इंकार कर दिया। गुस्से में वहां से निकलकर चंद्रशेखर आजाद अपने साथी सुखदेव राज के साथ अल्फ्रेड पार्क चले गए। वे सुखदेव के साथ आगामी योजनाओं के विषय में बात ही कर रहे थे कि पुलिस ने उन्हे घेर लिया।

आजाद ही जिए और आजाद ही मरे

लेकिन उन्होंने बिना सोचे अपनी जेब से पिस्तौल निकालकर गोलियां दागनी शुरू कर दी। दोनों ओर से गोलीबारी हुई। चंद्रशेखर के पास जब मात्र एक ही गोली शेष रह गई तो उन्हें पुलिस का सामना करना मुश्किल लगा। चंद्रशेखर आजाद ने पहले ही यह प्रण किया था कि वह कभी भी जिंदा पुलिस के हाथ नहीं आएंगे। इसी प्रण को निभाते हुए उन्होंने वह बची हुई गोली खुद को मार ली। पुलिस के अंदर चंद्रशेखर आजाद का भय इतना था कि किसी को भी उनके मृत शरीर के के पास जाने तक की हिम्मत नहीं थी। उनके शरीर पर गोली चला और पूरी तरह आश्वस्त होने के बाद ही चंद्रशेखर की मृत्यु की पुष्टि हुई। चंद्रशेखर आजाद को देश कभी नहीं भूल सकता। आजाद भारत उनका सदैव ऋणी रहेगा।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *